
Out of the spoken and unspoken, why do we listen selectively? Why do some words hit a cord, compel us to ponder, to introspect? Why do we feel the need to hear some and ignore some?
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वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को जानने की पहली सीढ़ी श्रवण, फिर मनन और फिर निदिध्यासन है। सो सुनना और वह भी कुमार गन्धर्व द्वारा गाये सन्त कबीर के शब्दों में कहे अनुसार—- वह तो आदर्श है सुनने का।
आज के समय में यह समझना कि हमें क्या सुनना अच्छा लगता है……इसे जानने के लिए यह समझना जरूरी है कि हमें क्या सुनना अच्छा नहीं लगता है। इसे आपने बहुत ही साफगोई से विस्तार में बताया है । लगा जैसे यह सभी के मन की ऐसी बातें हैं जिन्हें हम खुद कई बार जान ही नहीं पाते। आज की वार्ता बहुत अच्छी लगी।
सच्चाई यह है कि आजकल हम कर्कश और कर्णकटु आवाज़ों से आक्रांत रहते हैं। प्रदूषण का यह भी एक स्वरूप है। ध्वनियों के अवांछित ‘आक्रमण’ से दूर रह कर मौन समाधि में लीन रहने वाले साधक की इमेज हमारे मन में आत्म साक्षात्कार के संभावित साधन के रूप में आती है।
आपने संगीत (कुमार गंधर्व) और ग़ज़ल (सुदर्शन फ़ाकिर) के माध्यम से सुनने की कला के सूक्ष्म पहलुओं का एहसास भी हमें करवा दिया है। आपकी पॉडकास्ट को सुनना भी ख़ूबसूरत एहसास है। सुंदर प्रस्तुति के लिए साधुवाद!